कुछ लुढ़कती ,कुछ ठहरती ,
मानों एक दूसरे का पीछा करतीं ,
धरा पर धारा में बदलतीं ,
बचपन से कौमार्य का सफ़र ,
झटपट तय करतीं यें बूंदे .
कभी गुलाब की पंखुडियों पर ,
तो कभी ऊँचे नारियल पेड़ों पर,
रोमांच और आनंद से भरे वो दिन
आज धरती को सींचती
मनुष्य में जीवन का विस्तार का विस्तार करतीं
मेरा कौमार्य अमृत बन ,
धरा को खुशबू प्रदान करता ,
ग्रहड़ लग गया मेरे कौमार्य को ,
जिस मानव को मैं जीवन देती ,
ढल गया मेरा कौमार्य उसके प्रदुषण से ,
उदास , बिना कहे , बिना सुने ,
छमा की मूर्ति बन ,
चुपचाप समुद्र का आलिंगन करतीं
.
..................हाँ , मेरा बचपन ,
पत्तों पर गिरतीं निरंतर बूँदें ,कुछ लुढ़कती ,कुछ ठहरती ,
मानों एक दूसरे का पीछा करतीं
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