Sunday, September 13, 2009

बरसात की बूँदें

पत्तों पर गिरतीं निरंतर बूँदें ,
कुछ  लुढ़कती ,कुछ ठहरती  ,
मानों एक दूसरे का पीछा करतीं ,
धरा पर धारा में बदलतीं ,
बचपन से कौमार्य का सफ़र ,
झटपट तय करतीं यें बूंदे .
    बचपन के वो दिन,
    कभी गुलाब की पंखुडियों  पर , 
    तो कभी ऊँचे नारियल पेड़ों पर,
    रोमांच और आनंद से भरे वो दिन 
    आज धरती को सींचती 
    मनुष्य में जीवन का विस्तार का विस्तार करतीं 
                    मेरा कौमार्य  अमृत बन ,
                    धरा को खुशबू प्रदान करता ,
                    ग्रहड़ लग गया मेरे कौमार्य को ,
                    जिस मानव को मैं जीवन देती ,
                    ढल गया मेरा कौमार्य उसके प्रदुषण से ,
उदास , बिना कहे  , बिना सुने ,
छमा की मूर्ति बन ,
चुपचाप समुद्र का आलिंगन करतीं 
.
..................हाँ , मेरा बचपन ,
पत्तों पर गिरतीं निरंतर बूँदें ,
कुछ  लुढ़कती ,कुछ ठहरती  ,
मानों एक दूसरे का पीछा करतीं

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